श्रंगार - प्रेम >> रूप कुरूप रूप कुरूपमनमोहन मिश्र
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प्रस्तुत है एक रोचक उपन्यास...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
युवा राकेश एक प्रतिभाशाली चित्रकार है उसका मानना है कि बाह्य स्वरूप
आन्तरिक सौन्दर्य की प्रतिछाया है। उसके सहारे जीवन के चिर आनन्द दाई
स्थिति को पाया जा सकता है। उसका लगाव सरलमना, सुन्दर पर दृष्टिहीन निर्धन
लड़की उषा से हो जाता है जो एक पुराने कृष्ण मंदिर में मग्न, प्रतिमा के
आगे बैठ भजन गाकर अपना मन बहलाती रहती है। उसकी आँखों का इलाज करवाने के
लिए धन जुटाने के उद्देश्य से राकेश एक धनवान मादक रूपवाली
कामिनी
रजनी का चित्र बनाने लगता है।
राकेश पौरुष और उसकी कला कौशल से प्रभावित रजनी उसे अपने मोह-जाल में फाँस लेती है। जीवन में सुख-वैभव का उपयोग करने की लालसा में उषा को निराश्रित छोड़ वह रजनी के पास चला जाता है। वहां उसे सांसारिक ऐश्वर्य से चिपके स्वार्थी ईर्ष्यालु भ्रमर के कुचक्रों में पड़कर संघर्ष करना पड़ता है। पर कला के प्रति सच्ची लगन और विकट साधना के बल पर राकेश शीघ्र ही ख्याति प्राप्त कर लेता है। द्वेष और जलन के कारण भ्रमर उस प्रदर्शिनी में आग लगा देता है जिसमें राकेश के उत्तम चित्र रखे हैं । उन्हें बचाने के प्रयास में राकेश बुरी तरह जलकर कुरुप और वीभत्स हो जाता है। सब लोग उससे कतराने लगते हैं। रजनी भी उसे त्याग देती है। सब ओर से निराश व्याकुल राकेश को उषा की याद आती है। वह उसी पुराने कृष्ण मन्दिर में उषा से मिलने जाता है। क्या होता वहाँ, स्वयं पढ़कर जानिये।
राकेश पौरुष और उसकी कला कौशल से प्रभावित रजनी उसे अपने मोह-जाल में फाँस लेती है। जीवन में सुख-वैभव का उपयोग करने की लालसा में उषा को निराश्रित छोड़ वह रजनी के पास चला जाता है। वहां उसे सांसारिक ऐश्वर्य से चिपके स्वार्थी ईर्ष्यालु भ्रमर के कुचक्रों में पड़कर संघर्ष करना पड़ता है। पर कला के प्रति सच्ची लगन और विकट साधना के बल पर राकेश शीघ्र ही ख्याति प्राप्त कर लेता है। द्वेष और जलन के कारण भ्रमर उस प्रदर्शिनी में आग लगा देता है जिसमें राकेश के उत्तम चित्र रखे हैं । उन्हें बचाने के प्रयास में राकेश बुरी तरह जलकर कुरुप और वीभत्स हो जाता है। सब लोग उससे कतराने लगते हैं। रजनी भी उसे त्याग देती है। सब ओर से निराश व्याकुल राकेश को उषा की याद आती है। वह उसी पुराने कृष्ण मन्दिर में उषा से मिलने जाता है। क्या होता वहाँ, स्वयं पढ़कर जानिये।
अध्याय एक
आकांक्षा
1
कई दिनों से अपने को कमरे में बन्द किये राकेश चित्र बनाने में जुटा रहा
था। श्रावण की एक दोपहर को जब वह पूरा हुआ, अपने कमरे की घुटन से निकल कर,
बाहर खुले में जी भर कर स्वाँस लेने और अपने तप्त नेत्रों को प्रकृति की
हरियाली से शीतल करने के विचार से अकेला ही टहलता हुआ गोमती नदी के इस
निर्जन तट की ओर चला आया।
उस समय मौसम बड़ा सुहावना था। दिन में वर्षा हुई थी। शुद्ध जल से नहाकर तटवर्ती वृक्ष, पौधे और लतायें संध्या की स्निग्ध, स्वर्णिम आभा से चमक उठे थे। सूर्यास्त में देरी थी अतः आकाश के प्रांगण में गुलाल बिखेरकर रवि एक बार फिर रंगोली सजाने का प्रयास कर रहा था। प्रकृति के इस नूतन सौन्दर्य को देखकर वह मुग्ध और प्रफुल्लित हो उठा।
एकाएक हवा तेज़ हो गई। पुरवइया के द्रुत अश्वों पर आरूढ़ गरजते हुए भीमकाय काले मेघ आकाश में घिर आये और मूसलाधार वर्षा होने लगी। पावस ऋतु में उमड़ती गोमती के उस सूने तट पर बैठा राकेश उसमें फँस गया। इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई। पास ही एक बारादरी दिखाई दी, जो जीर्ण अवस्था में होने पर भी तत्काल शरण के लिए पर्याप्त थी। राकेश भागकर वहाँ पहुँचा और उसकी आड़ में खड़े होकर मुग्ध मन से वर्षा का आनन्द लेने लगा।
तभी अचानक, वर्षा से भी तीव्र एक आकुल स्वर उसके कानों में पड़ा। कोई पुरुष कंठ ऊँचे स्वर में पुकार रहा था-‘‘कहाँ हो तुम ? कहाँ ? शीत हड्डियाँ कँपा गया। धरती तपकर सूख गई। बादल आकर बरस गये। पर तुम्हारा कोई पता नहीं चला। अब कहाँ खोजूँ तुम्हें ? बताओ कहाँ...? कहाँ ?’’
राकेश उत्सुकता से उस ओर देखने लगा जिधर से यह स्वर बढ़ता हुआ उसकी ओर आ रहा था। कुछ ही क्षणों में उसे नदी के तट पर, वर्षा झड़ी के धुँधलके में, एक नर आकृति दिखाई दी। राकेश ने उसे पहचान लिया। बरसते जल में उसे यों भीगते देख पुकारा...‘‘इधर आ जाओ सत्यदेव, इस बारादरी में। बारिश बहुत तेज़ है।’’
नब्वाजी ज़माने की बनी उस बारादरी के खंडहर तक पहुँच सत्यदेव रुक गया। उसके उलझे घने बालों और बढ़ी हुई दाढ़ी से झरने की तरह पानी की धार मुख, कन्धों और छाती पर बह रही थी। बटन रहित उसका जीर्ण गाढ़े का कुर्ता छाती पर खुला और घुटनों तक फटा पायजामा भीग कर शरीर से चिपक गया था। उसे इस दशा में देख राकेश को दया आ गई। फिर पुकारा-‘‘तुम बहुत भीग गए हो ! कुछ देर यहाँ आड़ में खड़े हो जाओ।’’
सत्यदेव ने मुस्कराने की चेष्टा की। पर उसके विकृत मुख और अंगारे से दहकते नेत्रों में आया वह मृदुल भाव कुछ ही क्षणों में लुप्त हो गया। भर्राये स्वर में उसने पूछा-‘‘क्यों ? मैं क्या बताशा हूँ...जो पानी में गल जाऊँगा ?’’
‘‘नहीं’’ राकेश ने उसे समझाना चाहा-‘‘पर अधिक भीगने से बीमार पड़ सकते हो।’’
‘‘बीमार ?’’ विक्षिप्त-सा ठहाका मार कर सत्यदेव हँस दिया-‘‘यहाँ कौन बीमार नहीं है ? तुम...मैं सभी तो किसी-न-किसी मर्ज के शिकार हैं।’’
वह समय किसी गम्भीर चर्चा के लिए उपयुक्त नहीं था। बात टालते हुए राकेश बोला-‘‘यह तो ठीक है। पर व्यर्थ में भीग कर तुम क्या पा लोगे ?’’
सत्यदेव किसी और ही धुन में था, बोला-‘‘जो भीगते नहीं, वही क्या पा लेते हैं जीवन में ? यहाँ कोई भी अपनी मनचाही वस्तु नहीं पा सका है। मैंने नहीं पाया। तुम भी नहीं पाओगे।’’ इतना कहकर वह फिर नदी की ओर घूम पड़ा और-‘‘कहाँ हो तुम ? कहाँ खोजूँ तुम्हें ? कहाँ...? कहाँ ?’’ चिल्लाता हुआ झरते पानी के आवरण में खो गया।
राकेश वहीं खड़ा उसके बारे में सोचने लगा। लगभग साल भर हुआ, इसी नदी के सूने तट पर घूमते हुए सत्यदेव से उसकी भेंट हुई थी। उसके बाद जब भी इधर आया कभी नदी के रेतीले तट पर तो कभी निकट के वृक्षों की छाया में, सत्यदेव को अकेला ही पड़े पाया। स्वतः वह न किसी से मिलता-जुलता, न ही बात करना पसन्द करता था। फिर भी पूछने पर शान्त गम्भीर बना छोटा-सा उत्तर दे देता। उसकी बहुतेरी बातें गूढ़ और रहस्यमयी होती थीं। पर रह रहकर उसे उन्माद-सा उठता। तब उसे दीन दुनिया की कोई सुधि नहीं रह जाती। पागलों की तरह चीखता चिल्लाता इधर-उधर भागने लगता। कुछ देर उस उन्मादित अवस्था में रहकर, थका हुआ नदी किनारे पड़कर सो जाता था।
उसकी सामान्य मानसिक स्थिति के अवसरों पर राकेश ने उसके आन्तरिक भेद को जानने की चेष्टा की थी। पर पूरी बात उसने कभी बताई नहीं। उसकी बहकी बातों से और लोगों के बीच उसके सम्बन्ध में फैली अफ़वाहों से राकेश को उसके गत जीवन के बारे में जो पता चला वह कुछ इस प्रकार था।
सत्यदेव शहर की किसी व्यापारिक संस्था में एक साधारण-सा कर्मचारी था। उसके पूर्व इसी शहर के किसी डिगरी कॉलेज से उसने स्नातक की परीक्षा पास की थी। वह एक अच्छा विद्यार्थी और होनहार कवि था। पर पैसों की तंगी के कारण उसे वह नौकरी करनी पड़ी। उसकी पत्नी बहुत सुन्दर थी। सत्यदेव उसे बहुत प्यार करता था। पर उसे धोखा देकर वह किसी मनचले धनिक के साथ भाग गई। अफ़वाह थी कि कुछ दिन अपने पास रखकर उस धनिक ने उसे निकाल दिया। आत्मग्लानि से पीड़ित और आश्रयहीन होकर उसने नदी में डूबकर आत्महत्या कर ली। जो भी रहा हो, पर इतना सच था कि एक दिन मछुआरों के जाल में फँस कर इसी नदी से उसकी लाश निकली थी। पानी में भीग कर देह फूल गई थी। कई स्थलों पर कछुओं के खाने से मांस लुप्त हो गया था। पर उस वीभत्स अवस्था में भी सत्यदेव ने पहचान लिया कि वही उसकी पत्नी थी।
तब से उसके जीवन में एक भारी परिवर्तन आ गया। घर और नौकरी छोड़कर वह नदी के तटों पर ही चक्कर काटने लगा। जब भूख लगती शहर से खाना माँग लाता। जाड़े-गरमी दिन-रात कभी नदी किनारे की रेत पर, तो कभी तटवर्ती वृक्षों की छाया में लेटे या बैठे हुए आकाश ताकता रहता। शहर के लोग उसे पागल समझते। नटखट बच्चे घेर कर चिढ़ाने लगते। लफंगे उसकी हँसी उड़ाते हुए पूछते-‘‘तेरी बीबी कहाँ गई ?’’ पर वह पलट कर जवाब नहीं देता। किसी से झगड़ता भी नहीं था। नदी तट पर टहलते या स्नान के लिए आने वाले बहुधा उसके आगे पैसे फेंक जाते। वह उधर देखता भी नहीं। आस-पास के कुछ अंधविश्वासी उसे पहुँचा हुआ फकीर मानकर मिन्नतें माँगते और फल फूल भेंट कर जाते थे। पर वह उन्हें छूता भी नहीं, जब तक जोर की भूख न लगी हो।
सोचते-सोचते राकेश का मन भारी हो गया। बादल बरस कर छँटने लगे और वर्षा थम गई थी। भारी मन वह बारादरी से निकला और कुछ सोचते हुए घर की ओर लौट पड़ा।
उस समय मौसम बड़ा सुहावना था। दिन में वर्षा हुई थी। शुद्ध जल से नहाकर तटवर्ती वृक्ष, पौधे और लतायें संध्या की स्निग्ध, स्वर्णिम आभा से चमक उठे थे। सूर्यास्त में देरी थी अतः आकाश के प्रांगण में गुलाल बिखेरकर रवि एक बार फिर रंगोली सजाने का प्रयास कर रहा था। प्रकृति के इस नूतन सौन्दर्य को देखकर वह मुग्ध और प्रफुल्लित हो उठा।
एकाएक हवा तेज़ हो गई। पुरवइया के द्रुत अश्वों पर आरूढ़ गरजते हुए भीमकाय काले मेघ आकाश में घिर आये और मूसलाधार वर्षा होने लगी। पावस ऋतु में उमड़ती गोमती के उस सूने तट पर बैठा राकेश उसमें फँस गया। इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई। पास ही एक बारादरी दिखाई दी, जो जीर्ण अवस्था में होने पर भी तत्काल शरण के लिए पर्याप्त थी। राकेश भागकर वहाँ पहुँचा और उसकी आड़ में खड़े होकर मुग्ध मन से वर्षा का आनन्द लेने लगा।
तभी अचानक, वर्षा से भी तीव्र एक आकुल स्वर उसके कानों में पड़ा। कोई पुरुष कंठ ऊँचे स्वर में पुकार रहा था-‘‘कहाँ हो तुम ? कहाँ ? शीत हड्डियाँ कँपा गया। धरती तपकर सूख गई। बादल आकर बरस गये। पर तुम्हारा कोई पता नहीं चला। अब कहाँ खोजूँ तुम्हें ? बताओ कहाँ...? कहाँ ?’’
राकेश उत्सुकता से उस ओर देखने लगा जिधर से यह स्वर बढ़ता हुआ उसकी ओर आ रहा था। कुछ ही क्षणों में उसे नदी के तट पर, वर्षा झड़ी के धुँधलके में, एक नर आकृति दिखाई दी। राकेश ने उसे पहचान लिया। बरसते जल में उसे यों भीगते देख पुकारा...‘‘इधर आ जाओ सत्यदेव, इस बारादरी में। बारिश बहुत तेज़ है।’’
नब्वाजी ज़माने की बनी उस बारादरी के खंडहर तक पहुँच सत्यदेव रुक गया। उसके उलझे घने बालों और बढ़ी हुई दाढ़ी से झरने की तरह पानी की धार मुख, कन्धों और छाती पर बह रही थी। बटन रहित उसका जीर्ण गाढ़े का कुर्ता छाती पर खुला और घुटनों तक फटा पायजामा भीग कर शरीर से चिपक गया था। उसे इस दशा में देख राकेश को दया आ गई। फिर पुकारा-‘‘तुम बहुत भीग गए हो ! कुछ देर यहाँ आड़ में खड़े हो जाओ।’’
सत्यदेव ने मुस्कराने की चेष्टा की। पर उसके विकृत मुख और अंगारे से दहकते नेत्रों में आया वह मृदुल भाव कुछ ही क्षणों में लुप्त हो गया। भर्राये स्वर में उसने पूछा-‘‘क्यों ? मैं क्या बताशा हूँ...जो पानी में गल जाऊँगा ?’’
‘‘नहीं’’ राकेश ने उसे समझाना चाहा-‘‘पर अधिक भीगने से बीमार पड़ सकते हो।’’
‘‘बीमार ?’’ विक्षिप्त-सा ठहाका मार कर सत्यदेव हँस दिया-‘‘यहाँ कौन बीमार नहीं है ? तुम...मैं सभी तो किसी-न-किसी मर्ज के शिकार हैं।’’
वह समय किसी गम्भीर चर्चा के लिए उपयुक्त नहीं था। बात टालते हुए राकेश बोला-‘‘यह तो ठीक है। पर व्यर्थ में भीग कर तुम क्या पा लोगे ?’’
सत्यदेव किसी और ही धुन में था, बोला-‘‘जो भीगते नहीं, वही क्या पा लेते हैं जीवन में ? यहाँ कोई भी अपनी मनचाही वस्तु नहीं पा सका है। मैंने नहीं पाया। तुम भी नहीं पाओगे।’’ इतना कहकर वह फिर नदी की ओर घूम पड़ा और-‘‘कहाँ हो तुम ? कहाँ खोजूँ तुम्हें ? कहाँ...? कहाँ ?’’ चिल्लाता हुआ झरते पानी के आवरण में खो गया।
राकेश वहीं खड़ा उसके बारे में सोचने लगा। लगभग साल भर हुआ, इसी नदी के सूने तट पर घूमते हुए सत्यदेव से उसकी भेंट हुई थी। उसके बाद जब भी इधर आया कभी नदी के रेतीले तट पर तो कभी निकट के वृक्षों की छाया में, सत्यदेव को अकेला ही पड़े पाया। स्वतः वह न किसी से मिलता-जुलता, न ही बात करना पसन्द करता था। फिर भी पूछने पर शान्त गम्भीर बना छोटा-सा उत्तर दे देता। उसकी बहुतेरी बातें गूढ़ और रहस्यमयी होती थीं। पर रह रहकर उसे उन्माद-सा उठता। तब उसे दीन दुनिया की कोई सुधि नहीं रह जाती। पागलों की तरह चीखता चिल्लाता इधर-उधर भागने लगता। कुछ देर उस उन्मादित अवस्था में रहकर, थका हुआ नदी किनारे पड़कर सो जाता था।
उसकी सामान्य मानसिक स्थिति के अवसरों पर राकेश ने उसके आन्तरिक भेद को जानने की चेष्टा की थी। पर पूरी बात उसने कभी बताई नहीं। उसकी बहकी बातों से और लोगों के बीच उसके सम्बन्ध में फैली अफ़वाहों से राकेश को उसके गत जीवन के बारे में जो पता चला वह कुछ इस प्रकार था।
सत्यदेव शहर की किसी व्यापारिक संस्था में एक साधारण-सा कर्मचारी था। उसके पूर्व इसी शहर के किसी डिगरी कॉलेज से उसने स्नातक की परीक्षा पास की थी। वह एक अच्छा विद्यार्थी और होनहार कवि था। पर पैसों की तंगी के कारण उसे वह नौकरी करनी पड़ी। उसकी पत्नी बहुत सुन्दर थी। सत्यदेव उसे बहुत प्यार करता था। पर उसे धोखा देकर वह किसी मनचले धनिक के साथ भाग गई। अफ़वाह थी कि कुछ दिन अपने पास रखकर उस धनिक ने उसे निकाल दिया। आत्मग्लानि से पीड़ित और आश्रयहीन होकर उसने नदी में डूबकर आत्महत्या कर ली। जो भी रहा हो, पर इतना सच था कि एक दिन मछुआरों के जाल में फँस कर इसी नदी से उसकी लाश निकली थी। पानी में भीग कर देह फूल गई थी। कई स्थलों पर कछुओं के खाने से मांस लुप्त हो गया था। पर उस वीभत्स अवस्था में भी सत्यदेव ने पहचान लिया कि वही उसकी पत्नी थी।
तब से उसके जीवन में एक भारी परिवर्तन आ गया। घर और नौकरी छोड़कर वह नदी के तटों पर ही चक्कर काटने लगा। जब भूख लगती शहर से खाना माँग लाता। जाड़े-गरमी दिन-रात कभी नदी किनारे की रेत पर, तो कभी तटवर्ती वृक्षों की छाया में लेटे या बैठे हुए आकाश ताकता रहता। शहर के लोग उसे पागल समझते। नटखट बच्चे घेर कर चिढ़ाने लगते। लफंगे उसकी हँसी उड़ाते हुए पूछते-‘‘तेरी बीबी कहाँ गई ?’’ पर वह पलट कर जवाब नहीं देता। किसी से झगड़ता भी नहीं था। नदी तट पर टहलते या स्नान के लिए आने वाले बहुधा उसके आगे पैसे फेंक जाते। वह उधर देखता भी नहीं। आस-पास के कुछ अंधविश्वासी उसे पहुँचा हुआ फकीर मानकर मिन्नतें माँगते और फल फूल भेंट कर जाते थे। पर वह उन्हें छूता भी नहीं, जब तक जोर की भूख न लगी हो।
सोचते-सोचते राकेश का मन भारी हो गया। बादल बरस कर छँटने लगे और वर्षा थम गई थी। भारी मन वह बारादरी से निकला और कुछ सोचते हुए घर की ओर लौट पड़ा।
2
सुनसान स्थल को पारकर राकेश बस्ती में पहुँचा। उस समय सड़क पर भीड़ थी।
रिक्शा, ताँगे साइकिलें, मोटरें आ जा रही थीं। सड़क पार करने के पहले उसने
रुककर इधर-उधर देखा, उसकी दृष्टि चौराहे के पास एक महिला पर पड़ी, जो किसी
लड़के का हाथ थामे इसी ओर आ रही थी। बीच सड़क पर पहुँचते ही लड़के ने झटक
कर उसका हाथ छुड़ा लिया और जल्दी से कुछ छीनकर दूसरी ओर भागा। घबराई हुई
महिला वहीं खड़ी रह गई।
उस भागते लड़के को पकड़ने के लिए राकेश दौड़ना ही चाहता था कि उसी क्षण एक मोटर आकर उस महिला के पीछे रुक गई और रास्ता साफ कराने के लिए हॉर्न बजाने लगी। घबराकर वह ज्यों ही सड़क के दूसरी ओर हटी भी तेजी से एक ट्रक निकला। युवती को सामने पाकर ड्राईवर ने ब्रेक लगाये। गाड़ी का पहिया चूँ चूँ करता हुआ आगे तक खिसक गया। यदि उसी समय राकेश ने लपकर महिला को अपनी ओर खींच न लिया होता, निश्चय ही वह पहियों के नीचे आ जाती।
अचानक इस झटके से युवती लड़खड़ा गई, पर राकेश ने उसे सहारा देकर गिरने से बचा लिया। घबराई हुई वह राकेश की ओर ताकने लगी। अपनी इस धृष्टता की सफाई में वह बोला-‘‘क्षमा करना, सामने ट्रक आ गया था। खींच न लेता तो तुम्हें बुरी तरह चोट आ जाती।’’
युवती के मुख का भाव बदल गया। अपने को सम्भालते हुए कृतज्ञता के साथ कह दिया-‘‘धन्यवाद।’’
‘‘पर तुम्हारे साथ वह लड़का कौन था ? क्या लेकर भाग गया ?’’ राकेश ने भीड़ में उसी ओर देखते हुए पूछा, जिधर वह भागा था।
‘‘मैं नहीं जानती। आप ही चौराहा पार कराने के लिये साथ हो लिया था। पर मेरा बटुआ छीनकर भाग गया।’’ युवती के मुख पर अब भी घबराहट थी।
‘‘बड़ा बदमाश निकला। क्या अधिक पैसे थे उसमें ?’’
‘‘नहीं। फिर भी।’’ कुछ कहते-कहते वह रुक गई। उलझन के साथ इधर-उधर ताककर पूछा-‘‘पर मेरा झोला कहाँ गया ? उसमें दवाइयाँ थीं।’
राकेश ने देखा सड़क के इसी किनारे पटरी से लगी नाली के पास, एक झोला पड़ा था। उसका सामान बिखर गया था। दवा से भरी कार्ड बोर्ड की डिबिया पास ही सड़क पर पड़ी थी। टूटी हुई शीशी से दवा बह कर फैल गई थी। झुककर उसने झोला और डिबिया उठा ली। फिर भय से काँपती युवती को सहारे से फुटपाथ पर चढ़ाया और उसके हाथ में झोला थमाते हुये बोला-‘‘यह रहा झोला और पुड़ियों वाली दवा। शीशी तो टूट गई हैं।’’
‘‘क्या ? एकदम टूट गई ? अब क्या होगा ? मेरे पास तो और पैसे भी नहीं, जो फिर दवा बनवा लूँ।’’
‘‘किसकी दवा थी ?’’ राकेश ने पूछा।
‘‘बापू बीमार हैं। हालत ठीक नहीं। उन्हीं के लिये दवा लेने आई थी।’’ फिर इधर-उधर सिर घूमाकर उसने पूछा-‘‘कहाँ है शीशी ? क्या सब दवा बह गई ?’’
‘‘हाँ’’ राकेश बोला-‘‘पर बुरा न मानो तो पैसे मुझसे लेकर दवा बनवा लो।’’
युवती कुछ झिझकी। कारण समझकर राकेश ने पुनः आग्रह किया-‘‘इसमें तुम्हें संकोच नहीं करना चाहिये। मेरी ही गलती से नुकसान हुआ है।’’
‘‘गलती कैसी बाबू ? आपने तो मेरी जान बचा ली। पर...’’ कुछ कहते-कहते वह रुक गई।
राकेश ने हाथ बढ़ाकर कहा-‘‘लाओ, दवा का पर्चा मुझे। अभी बनवाये लाता हूँ।’’
युवती ने झोले में हाथ डाला। भीतर से ज्योंही तहा हुआ कागज़ निकाला-राकेश ने लपक कर उसे ले लिया और यह कहते हुए एक ओर बढ़ गया-‘‘मैं अभी आया। तुम यहीं रुको।’’
युवती चुप खड़ी रही। मसोदी हवा कुछ तेज हो चली थी। उसे हल्की-सी झुरझुरी लगी। कन्धे पर पड़े शॉल को ठीक से लपेट लिया और सोचने लगी।-‘‘बापू का इस समय क्या हाल होगा ? मुझे देर हो गई है। कहीं उलझ न रहे हों ? ऐसी हालत में मुझे ढूँढ़ने न निकल पड़े ? सर्दी लग जायेगी।’’
अधीरता के साथ उसने सड़क की ओर मुख फेरा, जिधर से सवारियों के आने जाने का शोर हो रहा था। फिर सोचने लगी-पर पटरी से हटकर मैं बीच सड़क पर कैसे पहुँच गई ? उसी लड़के की बदमाशी होगी। भला हुआ जो ये बाबू पास में थे, नहीं तो मोटर के नीचे आ जाती। फिर बाबू का क्या होता ? उलझन में उसने एक गहरी साँस ली। पर वो अभी दवा लेकर लौटे नहीं। आयेंगे तो ? हाँ जरूर आयेंगे। मेरी जान बचाई और मुझसे ही माफी माँग रहे थे ? बहुत भले लगते हैं, नहीं तो उन्हें क्या पड़ी थी कि दवा भी बनवाने जाते ? पर मैंने यह ठीक नहीं किया जो उन्हें पर्चा दे दिया। उनके पैसों से में दवा क्यों लूँ ?
उसने निश्चय किया कि उस अपरिचित की और राह देखे बिना ही चल देगी। पैर एक ओर उठ भी गये। पर दो चार डग बढ़ते ही किसी ठोस वस्तु से टकरा गई। टटोल कर देखा वह फुटपाथ पर पड़ा बिजली का खम्भा था। तो मैं सड़क की दूसरी पटरी पर आ गई हूँ ? उसने सोचा इसी रास्ते तो बापू मुझे कई बार गोमती नहलाने ले गये हैं। हमारा घर तो पटरी के उस पार पड़ेगा। सड़के कैसे पार करूँ ?
उस भागते लड़के को पकड़ने के लिए राकेश दौड़ना ही चाहता था कि उसी क्षण एक मोटर आकर उस महिला के पीछे रुक गई और रास्ता साफ कराने के लिए हॉर्न बजाने लगी। घबराकर वह ज्यों ही सड़क के दूसरी ओर हटी भी तेजी से एक ट्रक निकला। युवती को सामने पाकर ड्राईवर ने ब्रेक लगाये। गाड़ी का पहिया चूँ चूँ करता हुआ आगे तक खिसक गया। यदि उसी समय राकेश ने लपकर महिला को अपनी ओर खींच न लिया होता, निश्चय ही वह पहियों के नीचे आ जाती।
अचानक इस झटके से युवती लड़खड़ा गई, पर राकेश ने उसे सहारा देकर गिरने से बचा लिया। घबराई हुई वह राकेश की ओर ताकने लगी। अपनी इस धृष्टता की सफाई में वह बोला-‘‘क्षमा करना, सामने ट्रक आ गया था। खींच न लेता तो तुम्हें बुरी तरह चोट आ जाती।’’
युवती के मुख का भाव बदल गया। अपने को सम्भालते हुए कृतज्ञता के साथ कह दिया-‘‘धन्यवाद।’’
‘‘पर तुम्हारे साथ वह लड़का कौन था ? क्या लेकर भाग गया ?’’ राकेश ने भीड़ में उसी ओर देखते हुए पूछा, जिधर वह भागा था।
‘‘मैं नहीं जानती। आप ही चौराहा पार कराने के लिये साथ हो लिया था। पर मेरा बटुआ छीनकर भाग गया।’’ युवती के मुख पर अब भी घबराहट थी।
‘‘बड़ा बदमाश निकला। क्या अधिक पैसे थे उसमें ?’’
‘‘नहीं। फिर भी।’’ कुछ कहते-कहते वह रुक गई। उलझन के साथ इधर-उधर ताककर पूछा-‘‘पर मेरा झोला कहाँ गया ? उसमें दवाइयाँ थीं।’
राकेश ने देखा सड़क के इसी किनारे पटरी से लगी नाली के पास, एक झोला पड़ा था। उसका सामान बिखर गया था। दवा से भरी कार्ड बोर्ड की डिबिया पास ही सड़क पर पड़ी थी। टूटी हुई शीशी से दवा बह कर फैल गई थी। झुककर उसने झोला और डिबिया उठा ली। फिर भय से काँपती युवती को सहारे से फुटपाथ पर चढ़ाया और उसके हाथ में झोला थमाते हुये बोला-‘‘यह रहा झोला और पुड़ियों वाली दवा। शीशी तो टूट गई हैं।’’
‘‘क्या ? एकदम टूट गई ? अब क्या होगा ? मेरे पास तो और पैसे भी नहीं, जो फिर दवा बनवा लूँ।’’
‘‘किसकी दवा थी ?’’ राकेश ने पूछा।
‘‘बापू बीमार हैं। हालत ठीक नहीं। उन्हीं के लिये दवा लेने आई थी।’’ फिर इधर-उधर सिर घूमाकर उसने पूछा-‘‘कहाँ है शीशी ? क्या सब दवा बह गई ?’’
‘‘हाँ’’ राकेश बोला-‘‘पर बुरा न मानो तो पैसे मुझसे लेकर दवा बनवा लो।’’
युवती कुछ झिझकी। कारण समझकर राकेश ने पुनः आग्रह किया-‘‘इसमें तुम्हें संकोच नहीं करना चाहिये। मेरी ही गलती से नुकसान हुआ है।’’
‘‘गलती कैसी बाबू ? आपने तो मेरी जान बचा ली। पर...’’ कुछ कहते-कहते वह रुक गई।
राकेश ने हाथ बढ़ाकर कहा-‘‘लाओ, दवा का पर्चा मुझे। अभी बनवाये लाता हूँ।’’
युवती ने झोले में हाथ डाला। भीतर से ज्योंही तहा हुआ कागज़ निकाला-राकेश ने लपक कर उसे ले लिया और यह कहते हुए एक ओर बढ़ गया-‘‘मैं अभी आया। तुम यहीं रुको।’’
युवती चुप खड़ी रही। मसोदी हवा कुछ तेज हो चली थी। उसे हल्की-सी झुरझुरी लगी। कन्धे पर पड़े शॉल को ठीक से लपेट लिया और सोचने लगी।-‘‘बापू का इस समय क्या हाल होगा ? मुझे देर हो गई है। कहीं उलझ न रहे हों ? ऐसी हालत में मुझे ढूँढ़ने न निकल पड़े ? सर्दी लग जायेगी।’’
अधीरता के साथ उसने सड़क की ओर मुख फेरा, जिधर से सवारियों के आने जाने का शोर हो रहा था। फिर सोचने लगी-पर पटरी से हटकर मैं बीच सड़क पर कैसे पहुँच गई ? उसी लड़के की बदमाशी होगी। भला हुआ जो ये बाबू पास में थे, नहीं तो मोटर के नीचे आ जाती। फिर बाबू का क्या होता ? उलझन में उसने एक गहरी साँस ली। पर वो अभी दवा लेकर लौटे नहीं। आयेंगे तो ? हाँ जरूर आयेंगे। मेरी जान बचाई और मुझसे ही माफी माँग रहे थे ? बहुत भले लगते हैं, नहीं तो उन्हें क्या पड़ी थी कि दवा भी बनवाने जाते ? पर मैंने यह ठीक नहीं किया जो उन्हें पर्चा दे दिया। उनके पैसों से में दवा क्यों लूँ ?
उसने निश्चय किया कि उस अपरिचित की और राह देखे बिना ही चल देगी। पैर एक ओर उठ भी गये। पर दो चार डग बढ़ते ही किसी ठोस वस्तु से टकरा गई। टटोल कर देखा वह फुटपाथ पर पड़ा बिजली का खम्भा था। तो मैं सड़क की दूसरी पटरी पर आ गई हूँ ? उसने सोचा इसी रास्ते तो बापू मुझे कई बार गोमती नहलाने ले गये हैं। हमारा घर तो पटरी के उस पार पड़ेगा। सड़के कैसे पार करूँ ?
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लोगों की राय
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